कभी ये कमरा हँसी से गूंजा,
अब बस खामोशी में डूबा।
दीवारों पर जो रंग थे प्यारे,
अब बस हैं साये, कुछ धुंधले, कुछ सारे।
खिड़कियाँ उजाला रोक रही हैं,
धूल-धुंध से दुनिया छुप रही है।
जैसे बाहर की ज़िन्दगी चलती रही,
और ये कमरा बस ठहर गया कहीं।
कभी यहाँ कदमों की चहलकदमी थी,
बचपन की बातें, मीठी शरारतें थीं।
पर घड़ियाँ, काम और भागदौड़ की चाह,
ले गईं वो मुस्कानें, छीन ली हर राह।
अब ज़मीन पर धूल की चादर है,
जैसे कोई इंतज़ार करता दर है।
हर कण में छिपे हैं अनकहे पल,
अनसुने संदेश, अधूरे कल।
हमने सोने सी खुशियाँ खो दीं,
रिश्तों की नमी भी कहीं खो दी।
हम दौड़ते रहे बस बनाने को नाम,
पर दिल रह गया सूना, बिन आराम।
फिर भी ये कमरा यूँ ही खड़ा है,
किसी अपने के आने की आस लगा है।
एक हँसी, एक छुअन, कोई पुकार,
जो लौटा दे वो बिछड़ा प्यार।
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