पैरों पर अपने होकर खड़ा, मैं ना चल सका |
उम्र बीत गई, मैं कभी खुद ना बन सका ||
उम्मीदें दिल की, दिल में घुटके रह गयीं |
होकर ख़ुशी में सराबोर, ना निखर सका ||
होकर बड़ा, न कभी थामी ज़िन्दगी की डोर |
न बचपन में कभी अपनी जिद्द पर मचल सका ||
ठोकरें लगीं तो मैं गिरता चला गया |
ना थामा किसी ने हाथ, ना खुद ही संभल सका ||
हमसफ़र से लोग रहगुज़र में बदल गए |
ना बदला वक्त मेरा ना खुद को बदल सका ||
तुम सोचते हो की ये कुछ अशरार-ऐ-ग़ज़ल है|
मैनें लिखा है वो जो अब तक ना कह सका ||
--- कहीं, किसी रोज़, किसी वक़्त ---
सुधांशु
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