Friday, June 10, 2011

Great Work by my friend - Sudhanshu Sharma

पैरों पर अपने होकर खड़ा, मैं ना चल सका |
उम्र बीत गई, मैं कभी खुद ना बन सका ||

उम्मीदें दिल की, दिल में घुटके रह गयीं |
होकर ख़ुशी में सराबोर, ना निखर सका ||

होकर बड़ा, न कभी थामी ज़िन्दगी की डोर
न बचपन में कभी अपनी जिद्द पर मचल सका ||

ठोकरें  लगीं  तो  मैं  गिरता  चला  गया |
ना थामा किसी ने हाथ, ना खुद ही संभल सका ||

हमसफ़र से लोग रहगुज़र में बदल गए
ना बदला वक्त मेरा ना खुद को बदल सका ||

तुम सोचते हो की ये कुछ अशरार-ऐ-ग़ज़ल है|
मैनें  लिखा है वो जो अब तक ना कह सका || 

--- कहीं, किसी रोज़, किसी वक़्त ---
                                            सुधांशु 

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