Thursday, July 28, 2011

ना जाने क्यों जीवन हमारा हो गया इन सबका आदी...

ना जाने क्यों जीवन हमारा हो गया इन सबका आदी
कल मेरे पड़ोस में थी एक लड़की की शादी
बारात घुमाने चले गांव में करने लगे वो आतिसबाजी
खुशियों की मद्होशी छाई नाच रहे थे सब
आतिशों के कोलाहल में काँप उठी धरती सारी
...चारों तरफ धुआं सा छाया उड़-उड़ कर गिरी चिंगारी
चिंगारी गिरी किसी छप्पर पर देर लगी ना ज्वाला बनते
जल उठा धधककर खरपतवार जिसमे कुछ परिवार थे रहते
अरे बचाओ कहकर भागे आग बुझाओ तो कोई
डीजे लगा था जिसकी धुन पर थिरक रहा था हर कोई
चीखें गुम हो गयी उसी में नादों का तेज समुन्दर था
सुबह उधर को निकले जब तो जला हुआ सब मंजर था
मैने पुछा हुआ ये क्या तो किसी ने आकर बतलाया
कल रात किसी की खुशियों ने छीना इनके सिर से साया
तभी निगाह उस ओर गयी हो रही जहां थी कुछ बातें
सुनकर ठिठके कदम वहीं पर कि ऐसी रंगीन हो हर रातें
महफिल सजे आतिशों की और साथ में हो डीजे की धुन
मानवता का घ्रणित रुप देख मैं तो हो गयी चेतनासुन्न
सुध -बुध लौटी जब किसी ने ठोकर मारा पीछे से
कदम स्वतः उस ओर बढ़ गए कुछ पुछा नही किसी से
मैं उसी जगाह पर गयी पहुँच जहां था उसका नीड़ जला
जहां पर था कल छानी छप्पर वहाँ आज मलवा हो चला !

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